हड़ताल: सरकार सर्वमान्य हल निकाले

राकेश दुबे@प्रतिदिन। केंद्र सरकार की तमाम कोशिशों के बावजूद देश के मजदूर संगठनों ने दो सितंबर को अपनी देशव्यापी हड़ताल कर ही दी । इस हड़ताल की वजह से सरकारी दफ्तर, सरकारी बैंक और कारखाने बंद रहे । सरकार ने न्यूनतम मजदूरी बढ़ाने और केंद्रीय कर्मचारियों को बोनस देने जैसी तमाम घोषणाएं की हैं, मजदूर संगठन इससे संतुष्ट नहीं हैं। उल्लेखनीय  है कि देश की अर्थव्यवस्था के कई क्षेत्र हैं, जिनमें मजदूर संगठन बहुत प्रभावशाली हैं; हालांकि आर्थिक उदारीकरण के बाद आमतौर पर उनका प्रभाव घटा है। सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों में उनकी मौजूदगी बहुत मजबूत है, लेकिन निजी क्षेत्र में उनकी दखल बहुत कम हुई है।

मजदूर संगठनों की कई मांगें जायज हो सकती हैं और कई क्षेत्रों में मजदूरों को उनके अधिकार दिलवाने में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही है, लेकिन धीरे-धीरे वे अप्रासंगिक होते जा रहे हैं। सिर्फ भारत की नहीं, बल्कि पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था ऐसी होती जा रही है, जिसमें मजदूर संगठनों की भूमिका वैसी नहीं हो सकती, जैसी 20वीं सदी में थी। इसलिए मजदूर संगठनों की काफी सारी मांगें अर्थव्यवस्था की दिशा बदलने की उनकी इच्छा को प्रकट करती है। जबकि अर्थव्यवस्था की दिशा और गति को बदलना किसी शक्तिशाली सरकार के लिए भी संभव नहीं है, इसलिए ऐसी मांगें वास्तव में अव्यावहारिक ही हैं। इस हड़ताल के लिए जो मांगें रखी जा रही हैं, उनमें रक्षा, बीमा जैसे क्षेत्रों में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) का विरोध है। मजदूर संगठनों का डर यह है कि एफडीआई आने के बाद इन क्षेत्रों में काम करने वाले मजदूरों और कर्मचारियों की नौकरियां खतरे में पड़ सकती हैं और सार्वजनिक क्षेत्र में नई नौकरियां नहीं पैदा होंगी।

एफडीआई का आना व्यापक आर्थिक नजरिये का एक हिस्सा है और इसके बिना ये क्षेत्र बुरी तरह पिछड़ जाएंगे। रक्षा उत्पादन में लंबे वक्त तक एफडीआई ही नहीं, भारतीय निजी पूंजी को भी इजाजत नहीं थी। इससे रक्षा उत्पादन के क्षेत्र में देश पिछड़ता चला गया। स्थिति यहां तक पहुंच गई कि रक्षा उपकरणों और हथियारों का लगभग 80 प्रतिशत आयात करना पड़ रहा है। इस आयात को कम करने के लिए अगर देशी या विदेशी पूंजी से रक्षा उत्पादन बढ़ाया जाए, तो उससे विदेशों पर हमारी निर्भरता घटेगी व रोजगार भी बढ़ेंगे। इसलिए ऐसे नीतिगत बदलावों को रोकने की कोशिश व्यर्थ है, यह शायद मजदूर संगठनों के नेता भी जानते हैं।

भारत इस वक्त बदलाव के दौर से गुजर रहा है, पुरानी अर्थव्यवस्था खत्म हो रही है और नई अर्थव्यवस्था ने अपनी जगह पूरी तरह से नहीं बनाई है। मजदूर वर्ग के लिए नए संकट भी खड़े हुए हैं। मसलन, उदारीकरण ने नौकरियों में सुरक्षा कम कर दी है, लेकिन विकसित देशों के जैसा सामाजिक सुरक्षा का तंत्र हम अपने यहां नहीं बना सके हैं। दूसरे, जिस वर्ग को उदारीकरण से सचमुच बड़ा लाभ हुआ है, वह बहुत छोटा वर्ग है, और ज्यादातर लोगों को खास लाभ नहीं हुआ है। सन 2009 से शुरू हुई मंदी में न रोजगार बढ़े हैं, न ही बहुसंख्य लोगों की वास्तविक आमदनी बढ़ी है। इस हड़ताल से कोई समस्या हल होगी, इसमें संदेह है, लेकिन उदारीकरण के लाभ ज्यादा लोगों तक पहुंचाने और ज्यादा सामाजिक सुरक्षा के लिए मजदूर संगठनों व सरकार को मिल-बैठकर उपाय करने चाहिए।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।        
संपर्क  9425022703        
rakeshdubeyrsa@gmail.com
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