नईदिल्ली। सारा देश पाकिस्तान के मुद्दे पर बात कर रहा है। भाजपा के कुछ नेता साधने की कोशिश कर रहे हैं लेकिन सारा देश मोदी पर उबल रहा है। वो चाहते हैं चुनाव से पहले मोदी जैसी बातें (डूब मरो मनोमोहन) करते थे, प्रधानमंत्री बनने के बाद वैसे काम भी करें।
अब सवाल यह है कि क्या मोदी देश की जनता का मान रखते हुए सैन्य कार्रवाई करेंगे या फिर कोई बीच का रास्ता निकालने की कोशिश करेंगे। ऐसा ही एक रास्ता तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के समय भी निकाला गया था। दिसंबर 2001 में संसद आतंकी हमले के बाद अटल सरकार ने सेना का ऑपरेशन पराक्रम शुरू किया था। पूरे देश समेत सेना के अधिकारियों को भी भरोसा था कि यह युद्ध की तैयारी है परंतु सरकार ने युद्ध का ऐलान नहीं किया। दिसंबर 2001 से जून 2002 तक भारत की सेनाएं बॉर्डर पर तैनात रहीं। बदले में पाकिस्तान ने भी अपनी सेना खड़ी कर दी। दोनों देशों के 8 लाख सैनिक खड़े रहे।
अटल सरकार की रणनीति थी कि सीमा पर भारत की सेना देखकर पाकिस्तान में खौफ का माहौल बनेगा और वहां की सेना आतंकियों का साथ देना बंद कर देगी, लेकिन जो हुआ वो उसका उलट ही था। छह महीन तक दोनों देश में भारी तनाव रहा, फिर जून 2002 में बिना किसी पाकिस्तानी पहल के वाजपेयी ने ऑपरेशन रोकने के आदेश दे दिए।
पूरी कवायद में भारत को 3 बिलियन डॉलर (2010 करोड़ रुपए) का आर्थिक नुकसान हुआ। इतना ही नहीं, तत्कालीन रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नांडिस द्वारा लोकसभा में बताए अनुसार तब कुल 798 जवान शहीद हुए थे। इन जवानों ने युद्धक सामग्री और सुरंगों से जुड़े हादसों के साथ ही सीमा पार की फायरिंग में जान गंवाई थी। इसके ठीक उल्ट, जब भारत ने करगिल युद्ध लड़ा था, तब 527 जवान शहीद हुए थे। यानी ऑपरेशन पराक्रम में भारत ने बगैर युद्ध लड़े 798 जांबाज खो दिए थे। देखना यह है कि मोदी इस बार क्या निर्णय ले पाते हैं।