सदियों से दबे कुचले, इस तरह अपनी पीड़ा जाहिर करते हैं

कुमार विम्बाधर। 5-सितम्बर, शिक्षक दिवस पर जहाँ भोपाल में शिक्षक को "राष्ट्र-निर्माता" अधिकारिक रूप से घोषित किया गया, वहीं दिमनी (भिंड) में एक परम सम्मानीय (जिनका भविष्य अगले चुनाव में जनता फिर तय करेगी) सिर्फ़ इसलिये भड़क गये कि तथाकथित "राष्ट्र-निर्माता" उनका नाम उच्चारित नहीं कर पाये। ठीक भी है, जब 'महान राष्ट्र्भक्तों' को ही 'राष्ट्र-निर्माता' याद न रख पाये तो क्या ख़ाक राष्ट्र-निर्माण करेगा! और परम सम्मानीय ने जिन उत्कृष्ट अल्फ़ाज़ों से पश्चात् "राष्ट्र-निर्माता" को सम्मानित किया वे ख़ुद स्पष्ट करते हैं कि "राष्ट्रनिर्माण" में उनके कारगर प्रयासों को कितने हल्के में लिया जा रहा था।

यूँ भी वे अधिकार के साथ माँग कर रहे हैं कि उनसे बेहतर राष्ट्र हितसाधक कोई नहीं है और इनकी राहें रोकने की हर कोशिश (चाहे वह संवैधानिक ही क्यों न हो) "राष्ट्रद्रोह" है। सदियों हुए अत्याचार का हिसाब दशकों में पूरा नहीं हो सकता, सदियाँ तो कम से कम लगेंगी। फिर न्यायालय को प्रस्तुत आँकड़े बताते हैं, प्रदेश की वर्तमान तरक़्क़ी उनके प्रयासों के बग़ैर सम्भव नहीं थी। ऐसे लोगों की राह में काँटे बिछाना 'सिर्फ़ और सिर्फ़ योग्यता' का तिरस्कार है।

यूँ शासकीय सेवा में कई असंवैधानिक रूप से हुए वरिष्ठ भी कहीं गाली, कहीं गाली जैसा कुछ देकर उनके 'दबे-कुचले' होने की पीड़ा ज़ाहिर करते रहते हैं। किंतु "राष्ट्र और प्रदेश निर्माण" में इनकी महत्वपूर्ण भूमिका नज़रअन्दाज़ नहीं की जानी चाहिये। संविधान चाहे बदलना पड़े, ऐसे "दबे-कुचले" योग्य लोगों को आगे बढ़ने से नहीं रोका जा सकता।
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