राकेश दुबे@प्रतिदिन। कोचिंग उद्योग की पूंजी अरबों रुपये में पहुंच गई है और कोचिंग संस्थानों के बड़े-बड़े विज्ञापन देखकर यह अंदाज लगाया जा सकता है कि मार्केटिंग में कितना पैसा खर्च करने की इस उद्योग की क्षमता है। यह बोलबाला देखकर लगता है कि तमाम प्रतियोगी परीक्षाओं में कामयाबी के लिए कोचिंग अनिवार्य है, बिना कोचिंग लिए किसी प्रतिभाशाली छात्र को भी कामयाबी मिलना मुश्किल है।
आईआईटी गुवाहाटी ने इस साल चुने गए सारे छात्रों के बारे में जो अध्ययन किया, वह इस विषय पर काफी रोशनी डालता है। अध्ययन के मुताबिक, आईआईटी में चुने गए 10,576 छात्रों में से 5,539 छात्र, यानी 52.4 प्रतिशत ऐसे थे, जिन्होंने कोचिंग नहीं ली। 4,711 छात्र, यानी 44.5 फीसदी कोचिंग संस्थानों से पढ़कर कामयाब हुए। बाकी लगभग दो प्रतिशत छात्रों ने या तो निजी ट्यूशन लिए या फिर पत्राचार से प्रशिक्षण हासिल किया। यानी कामयाब होने वाले छात्रों में से बहुमत ऐसे छात्रों का है, जिन्होंने अपने बूते ही सिर्फ स्कूल की पढ़ाई की मदद से कामयाबी हासिल की। इसे इस बात का प्रमाण माना जा सकता है कि प्रतियोगी परीक्षाओं में कामयाबी के लिए कोचिंग अनिवार्य नहीं है। इसे ऐसे भी देखा जा सकता है कि आधे से कुछ ही कम छात्रों ने कोचिंग का सहारा लिया।
कोचिंग औपचारिक शिक्षा-व्यवस्था का हिस्सा नहीं है, कोचिंग संस्थानों की इस कदर प्रभावशाली उपस्थिति दरअसल शिक्षा-व्यवस्था पर प्रश्नचिह्न लगाती है। ज्यादातर शिक्षाविद कोचिंग कारोबार को अच्छी नजर से नहीं देखते। ज्यादातर छात्र और अभिभावक भी इसे एक अनिवार्य बुराई मानकर ही स्वीकार करते हैं। आईआईटी के प्रबंधक और शिक्षक भी कोचिंग के आलोचक ही हैं। उनका कहना है कि प्रवेश परीक्षा किसी छात्र के उत्तर रट लेने की क्षमता की कसौटी नहीं होनी चाहिए। आईआईटी में वे ऐसे छात्र चाहते हैं, जिनकी रचनात्मकता, कल्पनाशीलता और वैज्ञानिक, तकनीकी रुझान ऐसा हो, जिससे वे नया सोच सकें और मौलिक काम कर सकें। उनका कहना है कि कोचिंग संस्थानों ने इन सब बातों को पाठ्यक्रम और प्रशिक्षण का हिस्सा बना लिया है, जिससे आईआईटी प्रवेश परीक्षा का उद्देश्य ही विफल हो जाता है।इससे जूझने के लिए प्रवेश परीक्षाओं में ऐसे बदलाव किए जाते हैं, ताकि वे कोचिंग के प्रशिक्षण से अलग छात्रों की मौलिकता को परख सकें, लेकिन कोचिंग संस्थान वाले तुरंत उसे भी अपने प्रशिक्षण का हिस्सा बना लेते हैं।
कोचिंग संस्थान ऐसे कारखाने बन गए हैं, जो छात्रों को रगड़-घिसकर प्रतियोगी परीक्षाओं के लायक बनाते हैं। लेकिन दोष इन संस्थानों का भी नहीं है, हमारी शिक्षा-व्यवस्था परीक्षाओं में ऊंचे अंक लाने पर आधारित है। कोचिंग संस्थानों का उद्देश्य छात्रों को ज्यादा से ज्यादा अंक कमाने लायक बनाना भर है। शिक्षा प्रणाली छात्रों को ज्यादा रचनात्मक और जिज्ञासु बनाने के लिए नहीं है, वह एक गलाकाट स्पद्र्धा है, जिसमें छात्रों को किसी भी तरह से सफल होना है। अगर 52 प्रतिशत छात्र बिना कोचिंग के कामयाब हो सकते हैं, तो इस व्यवस्था में कुछ उम्मीद भी बाकी है।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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