श्रम के स्वाभिमान का प्रतीक रही हड़ताल

राकेश दुबे @प्रतिदिन। और राष्ट्रव्यापी हड़ताल से मजदूर संगठनो की जीवन्तता का परिचय मिला|  भारतीय जनता पार्टी से जुड़े मजदूर संगठन इस हड़ताल में भाग नहीं लिया , कई जगह सत्तारूढ़ और विपक्षी पार्टियों के संगठनों के बीच संघर्ष भी देखने को मिला । इस हड़ताल की वजह से सरकार, उद्यमों और आम जनता को कुछ असुविधा और नुकसान उठाना पड़ा है, लेकिन इसका कोई दूरगामी असर होगा, ऐसा नहीं लगता। ऐसे आंदोलनों से  मजदूर संगठनों को अपनी ताकत जांचने और कुछ हद तक बढ़ाने में मदद मिलती है, इसके अलावा कोई खास असर नहीं होता। इसकी एक वजह तो यही है कि मजदूर संगठन बहाव के खिलाफ संघर्ष कर रहे हैं। मजदूर संगठनों का रुझान अमूमन वामपंथी होता है, और वामपंथी विचारधारा अपनी ताकत तेजी से खो रही है।

रेलवे और रक्षा क्षेत्रों में एफडीआई का विरोध या सार्वजनिक उद्यमों के निजीकरण जैसे मुद्दे तो वामपंथी राजनीति में भी फिट न बैठें। इसका अर्थ यह नहीं है कि मजदूर संगठनों के विरोध को गंभीरता से नहीं लिया जाना चाहिए। उनकी कुछ मांगों को अव्यावहारिक मानकर खारिज भी कर दिया जाए, तो उनकी बहुत सी मांगें ऐसी हैं, जिन पर उनसे संवाद किया जाना चाहिए। श्रम सुधार एक ऐसा ही मसला है, जिस पर मजदूर संगठनों के विरोध की वजह से विशेष तरक्की नहीं हो पाई है। श्रम सुधारों के पक्षधर यह कहते हैं कि भारत के श्रम कानून रोजगार बढ़ने और उनकी परिस्थितियां बेहतर होने की राह में बाधक हैं। इन श्रम कानूनों की वजह से ही ज्यादातर उद्यम लोगों को सीधे रोजगार देने की बजाय ठेकेदारी का सहारा लेते हैं। कहा यह जा रहा है कि श्रम सुधारों से उद्यम लोगों को सीधे रोजगार देंगे और इससे मजदूरों और कर्मचारियों का ठेकेदारों के हाथ शोषण बंद होगा।

मजदूर संगठनों का कहना है कि श्रम सुधारों से मजदूर ज्यादा असुरक्षित हो जाएंगे। समस्या का निदान परस्पर संवाद से और आम लोगों के लिए सामाजिक सुरक्षा की योजनाएं देने से हो सकता है। स्थितियां फिर से पुराने दौर जैसी नहीं हो सकतीं, लेकिन उद्यमों और कर्मचारियों, दोनों को यह लगना जरूरी है कि उनके साथ अन्याय नहीं हो रहा है। मजदूरों और कर्मचारियों की शिकायतों को दूर करने के लिए यह जरूरी है कि श्रम सुधार व्यापक औद्योगिक सुधारों के तहत हों और मजदूरों को महसूस हो कि औद्योगिक माहौल उनके प्रति न्यायपूर्ण है। मजदूर संगठनों की समस्या यह है कि वे नए जमाने की नई चुनौतियों को नहीं देख पा रहे हैं। नए तौर-तरीके और नई तकनीक श्रमिक के अपने काम से रिश्ते को नए सिरे से परिभाषित कर रही हैं। इन चीजों का विरोध मजदूर आंदोलन को कहीं नहीं ले जाएगा। यह सरकार और उद्योगों के लिए भी जरूरी है कि वे नए दौर की नई चुनौतियों के लिए मजदूर संगठनों के साथ सहयोग करें और मजदूरों के प्रतिनिधित्व के लिए नए रास्ते ढूंढ़ें। 

श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क  9425022703
rakeshdubeyrsa@gmail.com

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