सूर्य प्रताप सिंह। अखबारों से ज्ञात हुआ कि आज मेरा स्थानांतरण कर 'प्रतीक्षा' में रख दिया गया है। किसी विभाग से किसी प्रमुख सचिव स्तर के अधिकारी को हटाकर 'प्रतीक्षा' में तभी डाला जाना चाहिए, जब उस विभाग में कोई 'घोटाला' या कदाचार किया गया हो, तथा उस अधिकारी को निष्पक्ष जांच हेतु हटाना जरूरी हो।
मैंने तो ऐसा अपनी समझ से कुछ नहीं किया। अब मुख्य सचिव के समकक्ष वरिष्ठ आईएएस अधिकारी, अर्थात मैं, बिना कुर्सी-मेज व अनुमन्य न्यूनतम सुविधाओं के पात्र भी नहीं रहे और सड़क पर पैदल कर दिया गया, चलो...व्यवस्था के अहंकार की जीत हुई। ज्ञात हुआ है कि लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष अनिल यादव की 'अहंकारी व बलशाली' इच्छा के सामने सारी व्यवस्था 'नतमस्तक' है, 'हुजुरेवाला' चाहते हैं कि मुझे तत्काल सड़क पर पैदल किया जाए, निलंबित कर तरह-तरह से अपमानित किया जाए, दोषारोपित किया जाए, कलंकित कर 'सबक' सिखाया जाए। जन-उत्पीड़न और कदाचार के खिलाफ कोई आवाज न उठे। व्यवस्था को लगता है कि जब बाकि नौकरशाह 'जी हुजूरी' कर सकते है तो हम जैसे लोग क्यों नहीं, हमारी मजाल क्या है?
मैंने तो नौकरी छोड़ने (VRS) की इच्छा भी व्यक्त की थी, अब बचा क्या है? ये मेरा कोई दबाव नहीं है...मैं व्यवस्था से अलग होकर जन-पीड़ा से जुड़ना चाहता हूं और प्रभावी ढंग से जनता की बात उठाना चाहता हूं। इसमें भी क्या कोई बुराई है। मेरा कोई निजी स्वार्थ नहीं। मेरे लिए 'रोजी-रोटी' का सवाल नहीं है?
अब क्या विकल्प है? या तो मेरे VRS के प्रस्ताव को स्वीकार किया जाए या अस्वीकार, यदि कोई कार्यवाही लंबित है तो मुझे न बताकर अखबारों के माध्यम से क्यों सूचित किया जा रहा है, मुझे नोटिस/जांच के बारे में कागजात/नोटिस उपलब्ध कराए जाएं ताकि मैं उसका जवाब देकर न्याय पा सकूं या फिर मैं अपने 'अकारण उत्पीड़न' के खिलाफ माननीय न्यायालय की शरण में जा सकूं।
क्या इस सब का उद्देश्य केवल मेरे VRS को सेवानिवृत्ति तक लटकाए रखने का है? ताकि मैं व्यवस्था से बाहर जाकर जन-सामान्य की समस्याओं को और प्रभावी ढंग से न उठा सकूं। मेरी आवाज को दबाए रखा जाए? आज कई परामर्श स्वरूप चेतावनी/धमकी प्राप्त हुईं। लगता है कि क्या अब प्रदेश ही छोड़ना पड़ जाएगा...या फिर छुपे-छुपे फिरना पड़ेगा...अंग्रेजी उपनिवेशवाद की याद आती है...आपातकाल जैसा लगता है...।
वाह री! उत्तर प्रदेश की 'लोकतांत्रिक' व्यवस्था, जहां लोकतंत्र के 'सारे स्तंभ' बाहर से बातें तो बड़ी-बड़ी करते हैं परंतु ऊपर सब मिलकर (निजी स्वर्था घालमेल कर) गरीब, पीड़ित जनता के लिए स्थापित 'व्यवस्था' का शोषण करते हैं, मौज मनाते हैं। यह व्यवस्था केवल 'Hands-in-Glove' नहीं अपितु 'Greesy Hands-in-Glove' लगती है, जिसमें Greese अर्थात मलाई का सब कुछ खेल लगता है। चाटो मलाई...माखन...बाकि सब ढक्कन...।
चलो...अब 'जातिवादी'...अनिल यादव जैसे अहंकारी मौज मनाएं, हंसें हमारी विवशता पर...हम तो आ गए सड़क पर...औकात दिखा दी हमें...हमारी...बड़े वरिष्ठ आईएएस अधिकारी बने फिरते थे हम...। अब आया न ऊंट 'शक्तिशाली (कु) व्यवस्था' के पहाड़ के नीचे। कहां गई जनता की आवाज। कहां गईं जनसमस्याएं। अनिल यादव ने सारी व्यवस्था को रौंद डाला। हर आवाज को कुचल डाला।
आगरा-लखनऊ एक्सप्रेसवे के 'मिट्टी भराव' में अब दब जाएंगी विरोध की सभी आवाजें और उसके ऊपर उड़ेंगे '(कु)व्यवस्था' के पंख लगे 'फाइटर प्लेन' के छदम सपने। किसानों के मुआवजे की बात बेमानी हो जाएगी। नकल माफिया, भूमाफिया, खनन माफिया, जातिवाद, क्षेत्रवाद, परिवारवाद जीतेगा। हारेगी जनसामान्य की आवाज। हारेगी 'माताओं-बहनों, गरीबों की चीत्कार, जीतेगा बलात्कारी का दुस्साहस|
वाह री वर्तमान व्यवस्था! कहीं आंसू पोंछने को भी हाथ नहीं उठ रहे, कहीं जश्न ऐसा कि थिरकने से फुर्सत ही नहीं। लो चलो हम सड़क पर आ गए। कबीर का यह कथन अच्छा लगता है कि कबीरा खड़ा बाजार में मांगे सब की खैर, ना काहू से दोस्ती ना काहू से बैर!!
लेखक श्री सूर्य प्रताप सिंह वरिष्ठ आईएएस एवं उत्तरप्रदेश में प्रमुख सचिव स्तर के अधिकारी हैं। हाल ही में सरकार ने उन्हें प्रतीक्षा सूची में रखा है।