राकेश दुबे@प्रतिदिन। विधि आयोग के सहयोग से राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालय के छात्रों द्वारा किए गए एक ताजा अध्ययन से इस बात की पुष्टि हुई है। अध्ययन में पिछले पंद्रह सालों में मौत की सजा प्राप्त 373 कैदियों के साक्षात्कार से प्राप्त आंकड़ों की जांच कर उनकी सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि को खंगाला गया, जिससे पता चला कि सजा-ए-मौत पाने वाले तीन चौथाई कैदी पिछड़े वर्गों से ताल्लुक रखते हैं और आर्थिक तौर पर कमजोर हैं। आतंकवाद के आरोप में मृत्युदंड पाने वाले अपराधियों में 93.5 प्रतिशत दलित और अल्पसंख्यक हैं।
हमारे देश में आतंकवादग्रस्त इलाकों को मोटे तौर पर तीन श्रेणियों में बांटा जा सकता है। पहली श्रेणी कश्मीर घाटी से जुड़ी है, दूसरी पूर्वोत्तर के राज्यों से और तीसरी का ताल्लुक माओवाद प्रभावित इलाकों से है। मृत्युदंड पाने वाले कैदियों की यह हकीकत जान कर तो लगता है कि हमारे देश में आतंकवाद के तार कहीं न कहीं सामाजिक-आर्थिक असमानता से भी जुड़े हैं।
अध्ययन के निष्कर्षों से पता चलता है कि मृत्युदंड पाने वाले तेईस प्रतिशत अपराधी ऐसे हैं, जिन्होंने कभी किसी स्कूल में कदम नहीं रखा, जबकि शेष की शिक्षा माध्यमिक से कम है। एक और दर्दनाक सच सामने आया है।कमजोर और गरीब तबके से जुड़े इन कैदियों को न अपने मुकदमे की कार्यवाही में भाग लेने की अनुमति दी जाती है और न अपने वकील से मुलाकात का पर्याप्त अवसर मिलता है। उन्हें अलग बैरक में रखा जाता है और किसी से मिलने की इजाजत नहीं दी जाती। इसके चलते उनकी मानसिक स्थिति और स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। यह भी पता चला है कि मात्र एक फीसद कैदी ऐसे हैं, जिनकी माली हालत योग्य वकील रखने की है। शेष निन्यानबे प्रतिशत अपना मुकदमा ‘राम भरोसे’ लड़ते हैं। इसी वजह से मृत्युदंड समाप्त करने की मांग जोर पकड़ती जा रही है।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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