आमूलचूल परिवर्तन की जरूरत है शिक्षा में

राकेश दुबे@प्रतिदिन। भारत में अब तक सबसे ज्यादा प्रयोग किसी एक क्षेत्र में हुए हैं, तो वह शिक्षा है| कई आयोग कई मशविरे और न जाने क्या क्या, सरकारी अभिलेखागारों में हैं | उन्हें पलट कर देखने कि फुर्सत न पहली सरकारों को रही है और न वर्तमान सरकार को| इस सरकार ने एक कदम आगे बढ़ कर नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति का मसौदा तैयार करने के लिए देश की जनता से राय मांगी है। इसके लिए अखबारों में विज्ञापन प्रकाशित किए गए हैं। 

सरकार के मुताबिक वह देश की आबादी की बदलती जरूरतों के अनुकूल एक राष्ट्रीय शिक्षा नीति तैयार करना चाहती है। उसका उद्देश्य छात्रों को जरूरी कौशल और ज्ञान से लैस कर भारत को एक ज्ञान महाशक्ति बनाना और विज्ञान, प्रौद्योगिकी और उद्योग में मानवश्रम की कमी को खत्म करना है।

1986 में पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने अपनी शिक्षा नीति के जरिए शिक्षा को रोजगारोन्मुख बनाने की पहल की थी। पहली बार तकनीकी शिक्षा का विकास हुआ और एजुकेशन में निजीकरण को बढ़ावा मिला। प्राइवेट स्कूलों और निजी तकनीकी संस्थानों का जाल बढ़ता गया और क्वालिटी एजुकेशन महंगा और सामान्य वर्ग से दूर होता गया। सरकार ने अपने स्कूल-कॉलेजों के विस्तार और उनकी गुणवत्ता सुधारने पर ध्यान नहीं दिया।

इस तरह यह बात स्थापित हो गई कि अच्छी शिक्षा भी वही हासिल कर सकता है जिसके पास पैसा है। विज्ञान और तकनीकी शिक्षा का प्रसार जरूर हुआ लेकिन उस क्षेत्र में शोध और अनुसंधान के अनुकूल माहौल नहीं बन पाया, नतीजतन विज्ञान  और नए-नए उभर रहे क्षेत्रों में शोध के इच्छुक छात्र भारत छोड़कर विदेश चले गए।

ज्यादातर सरकारों ने शिक्षा में बुनियादी बदलाव करने के बजाय उसका सियासी लाभ लेने की कोशिश की। उन्होंने इसका ढांचा बदलने और गुणवत्ता बढ़ाने से ज्यादा सिलेबस बदलने में रुचि दिखाई। हर किसी ने अपने-अपने नायकों को पाठ्यक्रम में शामिल करना ही अपना फर्ज समझा। 

जब स्कूल ही नहीं रहेंगे, बच्चे वहां पहुंचेंगे ही नहीं तो इन नायकों की जीवनी पढ़ेगा कौन?मोदी सरकार जब से सत्ता में आई है इसके सहयोगी संगठन शिक्षा को लेकर तरह-तरह के बयान दे रहे हैं। उनकी मंशा भी शिक्षा को अपने विचारों के अनुरूप ढालने की दिखाई दे रही है। अगर सरकार वाकई शिक्षा को लेकर गंभीर है तो उसे व्यापक नजरिए से काम करना होगा।


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