शायद यह सरकार भी मातृशक्ति को भूल रही है

राकेश दुबे@प्रतिदिन। ऐसे आसार दिख रहे है कि  संसद के शीत-सत्र में भी सरकार महिला आरक्षण विधेयक संसद मे पेश नहीं पाएगी। राज्यसभा ने 2010 में ही इसे पास कर लोकसभा के लिए भेज दिया गया था और सरकार अब इसे नए सिरे से संसद के दोनों सदन में लाने के लिए स्वतंत्र है। मामूली अंतर से ही सही, सोलहवीं लोकसभा में महिला भागीदारी का प्रतिशत बढ़ा है, जो पंद्रहवीं लोकसभा के 10.86 प्रतिशत से बढ़ कर 11 प्रतिशत हुआ है और पहली बार सरकार में सात महिलाएं उल्लेखनीय मंत्रालयों में काबिज हुई हैं। फिर ऐसी कौन-सी परिस्थितियां हैं कि महिला आरक्षण विधेयक लाने के लिए भाजपा सरकार विचार भी नहीं कर रही है।

एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक राइट्स के आंकड़ों के अनुसार आधी आबादी की पिछले लोकसभा चुनाव में कुल उम्मीदवारों में महज सात फीसद की ही भागीदारी रही। यह आंकड़ा छठे चरणके चुनाव के कुल 5432 उम्मीदवारों में से 5380 उम्मीदवारों के शपथपत्र के आधार पर तय किया गया है, जिनमें 402 महिला उम्मीदवार ही चुनाव मैदान में थीं और इनमें से एक तिहाई किसी दल से संबद्ध नहीं थीं। इन आंकड़ों से महिला आरक्षण के प्रति भारत के राजनीतिक दलों की मंशा का अंदाजा लगाया जा सकता है।

यह सही है कि आज भारतीय लोकतंत्र जिस मुकाम पर है, संख्या और भागीदारी के अनुपात से ही चुनावों में टिकट बांटे जाते हैं। जाति विशेष की संख्या देखते हुए ही उम्मीदवार तय होते हैं और इस प्रवृत्ति ने कम से कम इतना सुनिश्चित तो जरूर किया है कि लोकसभा और विधानसभा चुनावों में टिकट बंटवारे में पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण का प्रावधान न होने के बावजूद, इन जातियों से प्रतिनिधि लोकसभा में बड़ी संख्या में पहुंच रहे हैं।

‘लोकतांत्रिक व्यवस्था में समानता के प्रति मूल प्रतिबद्धता से किंतु-परंतु के साथ की आस्था के कारण ही शायद महिला आरक्षण विधेयक के लिए महिला नेताओं और आंदोलनकारियों ने अपेक्षित सफलता पिछले अठारह सालों में भी प्राप्त नहीं की है। यही कारण है कि राज्यसभा में महिला प्रतिनधित्व का विषय विधेयक में शामिल नहीं होता है या ‘आरक्षण के भीतर आरक्षण’ के समर्थकों को खलनायक बना कर इस महत्त्वपूर्ण विधेयक को टाला जाता रहा है। अभी स्थिति बदली नहीं है|

लेखक श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क  9425022703
rakeshdubeyrsa@gmail.com

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